लॉकडाउन से घबराए प्रवासी मजदूर,बोले- अस्पतालों में सुविधा नहीं, इससे अच्छा गाँव जाकर खेती कर लेंगे

घर से निकले देर हुई है, घर को लौट चलें, गूंगी रातें धूप कड़ी है, घर को लौट चलें गजल की ये चंद लाइनें मुंबई से अपने घर लौट रहे प्रवासियों पर सटीक बैठ रही हैं. एक साल बाद यह दर्द फिर लौट आया है. सरकार ने जब रास्ते खोले, तो मजदूर अपने काम पर लौट आए. ये बेबस लोग दो वक्त की रोटी के लिए अपने घर से दूर आ गए थे. लेकिन लौटती महामारी पर लॉकडाउन के चाबुक ने ऐसा दर्द दिया है कि घर लौटने पर मजबूर हो गए.
एक बार फिर घर लौटते मजदूर रुयानसी आवाज़ में कहते हैं.अस्पतालों में सुविधा नहीं है. इससे अच्छा है गाँव जाकर खेती कर लेंगे. कम से कम जीवित तो रहेंगे. ज़िंदा रहेंगे तो ओर कमा लेंगे.
कोरोना की लहर के कहर के साथ पश्चिम बंगाल में प्रचार की रफ्तार भी तेज़ हुई. यहाँ खुद देश को संभालने वाले कोरोना गाइडलाइन की धज्जियां उड़ाते नज़र आए. 5 राज्यों में अब केवल पश्चिम बंगाल ही बचा है जहां तीन चरणों का चुनाव बाकी है. प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी रैलियां कर रहीं हैं. इन रैलियों में लाखों की भीड़ आती है. 90% लोग बगैर मास्क के होते हैं. सोशल डिस्टेंसिंग का तो जिक्र तक नहीं होता यहां रोजाना लगभग 7 हजार से ज्यादा नए केस सामने आ रहे हैं. इसके बावजूद रैलियों में लापरवाही की जा रही है.
पश्चिम बंगाल की रैलियों पर सवाल यह की बंगाल में रैलियों पर रैलियान करते प्रधानमंत्री इतने अज्ञानी कैसे हो गए की आती हुई लाखों की भीड़ जुटने को सौभाग्य कहने लगे. लगातार रैलियान कर जब PM मोदी दिल्ली आते हैं तो दो गज दूरी की बात कहते हैं. रैलिया में जनता को मौत का निमंत्रण देकर आते खुद प्रधानमंत्री कोरोना के उसी जनता को लापरवाह बताकर सलाह देते हैं. डिजिटल और स्मार्ट इंडिया को बढ़ावा देने वाले, हर चीज़ को ऑनलाइन करने वाले क्या प्रचार ऑनलाइन नहीं कर सकते थे..या जनता की जान से ज्यादा जरूरी था सत्ता में आना.
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