Netaji Birthday: जानिए सुभाष चंद्र बोस की नेतृत्वशैली की कुछ खास प्रेरक बातें

देश आज अपने प्रिय नेताजी (Netaji) सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) की 125वीं जयंती मना रहा है. नेताजी के आदर्शों उनके कार्यों के आज तक देश में इतनी चर्चा नहीं हुई जितनी कि उनके रहस्यमय मृत्यु और तथाकथित मृत्यु के बाद भी जीवित रहने के किस्सों की होती है. लेकिन आखिर ऐसा क्या था जिसकी वजह से नेताजी को इतना याद किया जाता है. उनका पूरा जीवन नेतृत्व (Leadership) गुणों के ऐसे किस्सों से भरा पड़ा है जो आज भी युवाओं के साथ सभी के लिए एक आदर्श का काम करते हैं.
दृढ़ इच्छाशक्ति के मालिक
सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक शहर में हुआ था. वे पिता जानकी नाथ बोस था और माता प्रभावती की नौवीं संतान थे. बचपन से ही सुभाष चन्द्र बोस पढ़ाई में तेज होने के साथ देशभक्ति का जज्बे से भरपूर थे उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति भी कई मौकों पर लोगों को प्रभावित कर देती थे. उन्होंने अपनों तक का विरोध झेलते हुए भारत के स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने के लिए अपनी आईसीएस की नौकरी का त्याग किया देशसेवा के लिए इंग्लैंड से भारत वापस आ गए.
अकेले ही बना डाली अपनी अलग राह
सुभाष चंद्र बोस को नेताजी यूं ही नहीं कहा जाता है. अपने सिद्धांतों और मुद्दों के ले उन्होंने कई बार आसपास की दुनिया से खिलाफत करने से गुरेज नहीं किया है. देश को आजादी दिलाने के लिए उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजो के विरोधियों से मिलने से भी हिचकिचाहट महसूस नहीं की. इस मुद्दे पर उनके गांधी जी से मतभेद हुए लेकिन सुभाष ने अपने रास्ते पर अकेले जाना पसंद किया और आजाद हिंद फौज का गठन किया.
अंजाम की भी नहीं करते थे परवाह
सुभाष चंद्र बोस ने रखी हैं जिनसे साबित होता है कि वे अपने साथियों के लिए कभी पीछे नहीं हटते थे. वे जिनके साथ रहे उनका हमेशा ही ख्याल रखा करते थे. उन्होंने जेल में क्रांतिकारी गोपीनाथ को फांसी के बाद उनका अंतिम संस्कार किया. उन्होंने इस बात की परवाह भी नहीं की कि अंग्रेज उन्हें क्रांतिकारियों का मददगार मान लेंगे, जबकि वे जानते थे कि ऐसा जरूर होगा और हुआ भी.
अपने हर साथियों का ख्याल
यूरोपीय प्रवास के दौरान नेताजी ने सरदार वल्लभ भाई पटेल के बीमार भाई विठ्ठल भाई पटेल की निस्वार्थ भाव सेवा की. विठ्ठल भाई ने अपनी सारी वसीयत नेताजी के नाम लिख दी जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया. इसी दौरान ऑस्ट्रिया में जब नेहरू जी की पत्नी कमला नेहरू का निधन हुआ था तब बोस ने ऑस्ट्रिया में उनके पास जाकर उन्हें सांत्वना दी थी.
विरोध दौर में नेतृत्व
सुभाष ने हमेशा ही एक आदर्श नेतृत्व की स्थापना की है. उनकी जीवनी में ऐसे किस्सों की भरमार हैं जिसमें यह पता चलता है कि अमुक स्थिति में व्यक्ति को नेतृत्व के गुणों का कैसे उपयोग करना चाहिए. 1939 में कांग्रेस के अंदर ही गांधी जी सहित उन्हें ज्यादातर कांग्रेसियों को विरोध झेलना पड़ा तभी उन्होंने त्यागपत्र को हमेशा ही अंतिम विकल्प रखा.
नहीं छोड़ी कांग्रेस
जब उनकी कार्यशैली को लोगों ने पसंद किया और वे कांग्रेस अध्ययक्ष का चुनाव जीत गए तब कांग्रेस कार्यकारिणी के 14 में 12 सदस्यों ने गांधी के साथ का हवाला देते हुए त्यागपत्र दे दिया था, लेकिन फिर सुभाष कार्य करते रहे. त्रिपुरी अधिवेशन में तमाम विरोध के बाद भी उन्होंने समझौते के बहुत प्रयास किया और 29 अप्रैल 1939 को ही कांग्रेस के अध्ययक्ष पद से त्यागपत्र दिया. पार्टी के अंदर ही उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक पार्टी बनाई और कांग्रेस में ही संघर्ष करते रहे.
कांग्रेस से अलग होने के बाद उन्होंने देशभक्ति को ही सबकुछ बनाए रखा और हिटलर से सहयोग करने से भी नहीं हिचकिचाए. इसके बाद उन्होंने जर्मनी, इटली, जापान की सरकारों से सहयोग लिया और आजाद हिंद फौज का गठन किया. द्वितीय विश्व युद्ध में जब अंग्रेजी फौजों का पलड़ा भारी हुआ और आजाद हिंद फौज और जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा था, तब जापानी फौज ने उनके भागने की व्यवस्था भी की थी. लेकिन उन्होंने झाँसी की रानी रेजिमेंट की लड़कियों के साथ सैकड़ों मील चलते रहने को चुनकर आदर्श नेतृत्व की मिसाल पेश की.
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